रेत के घर।

कितना अजीब है इस दिल का फ़साना,
इक आईने का पत्थर पर बिखर जाना।

इन लहरों की ज़िद भी सब मालूम है मुझे,
इक जुनून सा ही तो है रेत पर घर बनाना।

कागजी खतों ने महफूज़ रखीं बहुत देर तक,
आसान तो अब है यादें उंगलियों से मिटाना।

भंबर के पानी को कितना ही बुरा लगा होगा,
बहती नदी का चुपचाप से यूं ही गुुज़र जाना।

कहीं भी नज़र नहीं आई उसके नाम की तख्ती,
कमाई उम्र भर की खा गया जिसका आशियाना।

अशोक सिंह गुलेरिया।
कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश

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