।■ लठ भीतर,हठ बाहर…
◆ इस बार सरेआम खुली ढोल की पोल, सरकार के कर्म पड़े भाजपा पर भारी
◆ नेताओं की वजह से हुई झण्ड, युवाओं ने दिखाया अपना मेंटल डेकोरम
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हकीकत क्या होती है ? जब यह बेपर्दा होती है तो क्या होता है ? इन दो सवालों के जवाब आज शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन जनता ने जबरन सरकारी मुंह से उगलवा भी लिए और लिखित रूप में हथिया भी लिए। सवर्ण आयोग की मांग में सरकार सिर्फ सामान्य आयोग ही लिख पाई,बाकि कोई सरकारी जोर नहीं चल पाया।
जिस आयोग को लेकर सरकार अड़ी हुई थी, उसी आयोग का भोग सरकार ने खुद आंदोलनकारियों को चढ़ाया भी, लगाया भी। अगर यही फैसला वक़्त रहते ले लिया गया होता तो लम्बे पड़ने की ज़हमत भी नहीं उठानी पड़नी थी और न ही सवर्ण विरोधी होने की तोहमत झेलनी पड़नी थी। इस बाबत रुमित का वो बयान सरकारी गालों पर शर्म की लाली बढ़ाने वाला था कि , ” अगर वक़्त रहते फैसला कर देते तो आज हजारों की भीड़ धन्यवाद करने पहुंचती न कि आंखे दिखाने। ” रुमित की इस बात में कहीं न कहीं सच्चाई भी थी। क्या सरकार के पास ऐसे कोई मैनेजर्स नहीं थे जो डैमेज कंट्रोल कर पाते ? जिस कांगड़ा की जमीन पर बवाल काटा गया,क्या वहां भाजपा के पास एक भी ऐसा नेता नहीं था, जो सवर्ण बिरादरी के नाम पर सालों से अपनी सियासी फसल बोते-काटते चले आ रहे हैं ? मगर नहीं,झण्ड करवा कर ठण्ड पड़नी थी,वो सरकारी कलेजों ने अपनी हरकतों की वजह से डलवा ही ली। साथ ही सबसे बड़ा पॉलिटिकल डेंट यह भी पड़ गया कि सरकार सवर्ण विरोधी है। सरकार में हुए घटनाक्रम का असर भगवा पर भी पड़ गया।
लठ गाड़ देंगे,माथे में कील गाड़ देंगे जैसी उदण्ड भाषा का परचम सरकारी व्यवस्थाओं को चीरता हुआ विधानसभा के भीतर पहुंच गया। सबके हाथ खड़े थे और खड़े ही रह गए। गौर करने वाली बात यह भी थी कि आईएएस-आईपीएस जैसी महीन-जहीन सोच के साथ-साथ शातिर सियासी सोच को भी एक सामान्य वर्ग के सामान्य लीडर ने तोड़-मरोड़ कर रख दिया। रुमित जब गेट पर अफसरों से बात कर रहे थे,तो अफसर लॉबी हमेशा की तरह उनको यह समझा रही थी कि :
1 ) आप भरोसा कीजिए, सरकार आपकी बात मान लेगी।
2) आप अपना मांगपत्र दीजिए,हम सीएम साहब को दे देंगे।
3) पॉलिसी बनाने के लिए स्टडी किया जा रहा है। ड्राफ्ट पढ़ रहे हैं।
इन तीन पॉपुलर पॉलिटिकल एंड एडमिनिस्ट्रेटिव लॉलीपॉपस को रुमित ने उल्टा अफसरशाही के हाथों में यह कह थमा दिया कि :
1) 50 सालों से हम लोग पिस रहे हैं। एक साल से आपके चीफ मिनिस्टर साहब एक वादा पूरा नहीं कर पा रहे। कैसे भरोसा करें ?
2) चिट्ठी क्यों दें हम ? क्या चिट्ठी देख कर पॉलिसी बनाओगे ?
3) ड्राफ्ट पढ़ कर क्या उसका कट एंड पेस्ट करोगे ? क्या सरकार के पास अपना कोई डाटा नहीं है ?
यह कह कर रुमित ने साफ कह दिया कि सीएम साहब बाहर आएं, लोगों से बात करें, अन्यथा कोई और रास्ता नहीं है। अब आगे की मजे की बात देखिए। पता नहीं अफसर सरकार के मजे ले गए या फिर सरकार खुद ही मजे का सामान बन गई। सदन के अंदर से चंद मंत्री-विधायक इस तरह से हाथ लहराते हुए जनता के सामने आई जैसे भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी बल्ला लहराते हुए मैदान में पिच की तरफ जाते हैं।
वही हुआ जिसका अंदेशा था। पब्लिक वेलकम की बजाए हूटिंग करने शुरू हो गई। जनता अड़ गई कि सिवाए सीएम के कोई नहीं चाहिए। पता नही कौन ऐसे कौन सलाहकार थे जिन्होंने ऐसी कलाकारी भरी सलाह दी थी कि मंत्रियों को भेजा जाए। फिर सियासी झण्ड हुई तो मामला अटक गया। लोग सीएम के अलावा किसी की बात को सुनने-समझने के लिए तैयार नहीं थे। खैर, देर आए दरुस्त आए वाला सीन बना। सीएम साहब बाहर आए और लोगों को कहा कि आयोग का गठन हो जाएगा। पर यहां फिर जनता की अदालत सज गई। पब्लिक के वकील रुमित बन गए और कटघरे में सीएम साहब को खड़ा कर दिया गया। इधर ठाकुर साहब कोई बात कहते उधर से रुमित क्रॉस क्वेश्चंनिंग कर देते कि कब ? कैसे ? कहाँ ? माइक कभी सीएम तो कभी रुमित के हाथों में घूमता रहा। रुमित और आंदोलनकारी लिखित गारंटी पर अड़ गए और फिर मामला उलझ गया। खैर, शाम तक लिखित आश्वासन आया तो मामला ठण्डा हो पाया।
अब सवाल यह उठते हैं कि : 1) आखिर इस सरकार को चला कौन रहा है ?
2) नेता सरकार को चला रहे हैं या अफसर नेताओं को चला रहे हैं ?
3) वो कौन सलाहकार थे जिन्होंने सीएम को लगातार आंदोलनकारियों से दूर रखा ?
4) जब यह पता था कि आन्दोलनकारो सिवाए सीएम के किसी पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं तो सेकण्ड लाइन को लाइम लाइट में क्यों भेजा गया ?
5) क्या सीएम ने मंत्री-विधायक खुद भेजे थे ? या फिर किसी की सलाह पर वह आए ?
6 ) सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या अफसरों को यह खबर नहीं थी कि भीड़ की अदालत में सीएम को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है ?
7 ) उन्हें उनके पद की मर्यादा के मुकाबले मजबूर सीएम दिखाया जा सकता है ?
8) क्या गारंटी है कि अब कोई और संगठन या वर्ग विशेष लठ के दम पर अपना हठ मनवाने आगे नहीं आएगा ?
9) लोकतंत्र में हर व्यवस्था का मजबूत होना जरूरी है। आज ऐसी कौन सी व्यवस्था कमजोर रही होगी, जिसकी वजह से हर व्यवस्था कटघरे में खड़ी होती चली गई ?
- सामान्य आयोग के गठन की आड़ में हुए घटनाक्रम में कहीं न कहीं सरकारी व्यवस्थाओं के बिखराव में पुनर्गठन और इनके पुनर्जन्म की जरूरत का भी आभास जरूरी लगा। शुक्रवार को सबसे बड़ा सुखद पहलू यह रहा कि सब अमन से सम्पन्न हो गया। बस सियासी चमन में ही लापरवाही की खिज़ां नजर आई…। जो सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा नोटिफिकेशन जारी की गई है उसमें सामान्य वर्ग आयोग के गठन की बात कही गई है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने सही कहा है कि हम सब मिलकर आगे बढ़ना चाहते हैं। सोशल मीडिया में कुछ लोग कुतर्क बातें कर रही हैं। विपक्ष के विधायक विक्रमादित्य सिंह ने स्पष्ट कहा है कि राजा वीरभद्र सिंह ने विभिन्न संगठनों की मांगों पर आयोग गठित किए तथा स्वर्ण आयोग के गठन से इस वर्ग के लोगों को अपनी बात रखने का मौका मिलेगा।हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की बात करें तो उन्होंने आगे आकर लंबी सोच का परिचय दिया है।
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